अथर्ववेद संहिता
द्वितीय काण्ड
[७- शापमोचन सूक्त]
[ ऋषि -अथर्वा। देवता -भैषज्य, आयु, वनस्पति। छन्द – अनुष्टुप् , १ भुरिगनुष्टुप्, ४ विराडुपरिष्टाद् बृहती।]
१८८. अघद्विष्टा देवजाता वीरुच्छपथयोपनी।
आपो मलमिव प्राणैक्षीत् सर्वान् मच्छपथाँ अधि॥१॥
पिशाचों द्वारा किये हुए पाप को दूर करने वाली, ब्राह्मणों के शाप को विनष्ट करने वाली तथा देवताओं द्वारा उत्पन्न होने वाली वीरुध् (दूर्वा ओषधि) हमारे समस्त शापों को उसी प्रकार धो डालती है, जिस प्रकार जल समस्त मलों को धो डालता है॥१॥
१८९. यश्च सापत्नः शपथो जाम्याः शपथश्च यः।
ब्रह्मा यन्मन्यतः शपात् सर्वं तन्नो अधस्पदम्॥२॥
रिपुओं के शाप, स्त्रियों के शाप तथा ब्राह्मण के द्वारा क्रोध में दिये गये शाप हमारे पैर के नीचे हो जाएँ (अर्थात् नष्ट हो जाएँ)॥२॥
१९०. दिवो मूलमवततं पृथिव्या अध्युत्ततम्।
तेन सहस्रकाण्डेन परिणः पाहि विश्वतः॥३॥
द्युलोक से मूल भाग के रूप में आने वाली तथा धरती के ऊपर फैली हुई उस हजार गाँठों वाली वनस्पति (दूब) से हे मणे ! आप हमारी सब प्रकार से सुरक्षा करें॥३॥
१९१. परि मां परि मे प्रजा परिणः पाहि यद् धनम्।
अरातिनों मा तारीन्मा नस्तारिषरभिमातयः॥४॥
हे मणे ! आप हमारी, हमारे पुत्र-पौत्रों तथा हमारे ऐश्वर्य की सुरक्षा करें। अदानी रिपु हमसे आगे न बढ़े तथा हिंसक मनुष्य हमारा विनाश करने में सक्षम न हों॥४॥
१९२. शप्तारमेतु शपथो यः सुहार्तेन नः सह।
चक्षुर्मन्त्रस्य दुर्हार्दः पृष्टीरपि शृणीमसि॥५॥
शाप देने वाले व्यक्ति के पास ही शाप लौट जाए।जो श्रेष्ठ अन्त:करण वाले मनुष्य हैं, उनके साथ हमारी मित्रता स्थापित हो। हे मणे अपनी आँखों से बुरे इशारे करने वाले मनुष्य की पसलियों को छिन्न-भिन्न कर डालें॥५॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य
