चित्त वृत्तियों का निवास स्थान है , प्राण भोग का क्षेत्र है , शरीर कर्म का यन्त्र है , बुद्धि चिंतन का राज्य। शुद्ध अवस्था मे इन् सबकी प्रवृत्ति स्वतंत्र होती है , एक दूसरे का विरोध नहीं करती।
चित्त मे भाव उठता है , शरीर उसके अनुसार कर्म करता है , बुद्धि मे उसके अनुसार विचार आते हैं , प्राण उसी भाव , कर्म और चिंतन का आनन्द लेता है । जीव साक्षी रूप से प्रकृति की इस आनन्दमयी क्रीडा को देखकर खुश होता है।
अशुद्ध अवस्था मे प्राण ‘शारीरिक या मानसिक भोग’ के लिए लालायित रहता है और शरीर को ‘कर्म यन्त्र’ न बनाकर ‘भोग का साधन’ बना लेता है । शरीर भोग मे आसक्त होकर बार-बार शारीरिक भोग की मांग करता है और शारीरिक भोग की कामना मे फंसकर चित्त निर्मल भाव ग्रहण करने मे असमर्थ हो जाता है । कलुषित भावना से भरा भाव चित्त सागर को क्षुब्ध कर देता है और वासना का कोलाहल बुद्धि को अभिभूत करके व्याकुल कर डालता है और उसे बहरा बना देता है ।
अब बुद्धि निर्मल , शान्त और भ्रांत रहित चिंतन के लिए असमर्थ हो जाती है और असत्य के प्रबल हो जाने के कारण अंधी बन जाती है । बुद्धि भ्रष्ट होने के कारण जीव भी ज्ञान शून्य होकर साक्षी भाव और निर्मल आनन्द भाव से वंचित होकर अपने आपको आधार के साथ एक मान लेता है और यह सोच कर कि , ” मै चित्त हूँ ” , “मै बुद्धि हूँ ” इस भ्रांत धारणा के कारण शारीरिक और मानसिक सुख -दुःख के साथ सुखी और दुखी होता है।
इस सारी गडबड का मूल है ‘अशुद्ध चित्त ‘ अतः चित्त शुद्धि उन्नति का प्रथम सोपान है । यह अशुद्धि केवल राजसिक और तामसिक वृत्ति को कलुषित करके ही चुप नहीं हो जाते बल्कि सात्विक वृत्ति को भी कलुषित करते हैं ।
” अमुक मनुष्य मेरे शारीरिक और मानसिक भोग की सामग्री है, वह मुझे अच्छा लगता है , मै उसी को चाहता हूँ , उसके विरह से मुझे क्लेश होता है ” —–यह है अशुद्ध प्रेम , शरीर और प्राण ने चित्त को कलुषित करके निर्मल प्रेम को विकृत कर दिया है।
इस अशुद्धि के कारण बुद्धि भी भ्रांत होकर कहती है , ” अमुक मेरी स्त्री है , भाई , बहन , सखा , आत्मीय , मित्र हैं , उसी से प्यार करना होगा। यही प्रेम पुण्यमय है , यदि मै इसके विपरीत काम करु तो वह पाप होगा , क्रूरता होगी , अधर्म होगा।
” इस तरह के अशुद्ध प्रेम के फलस्वरूप इतनी बलवती दया पैदा होती है कि प्रियजनों को कष्ट देने , प्रियजनों का अनिष्ट करने की अपेक्षा स्वयं धर्म को तिलांजलि देना श्रेयष्कर मालुम होता है। अंत मे इस ‘ दया ‘ को चोट न पहुचे इसलिए धर्म को अधर्म कह कर अपनी दुर्बलता का समर्थन किया जाता है।
अर्जुन इसी रोग से ग्रस्त था। यही वैष्णवी माया है।
श्रीअरविन्द
