अथर्ववेद-संहिता – 1:06 – अपांभेषज (जल चिकित्सा) सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥

[६ – अपांभेषज (जल चिकित्सा) सूक्त]

[ऋषि – सिन्धुद्वीप, कृति अथवा अथर्वा। देवता -अपांनपात् , सोम और आप: देवता । छन्द -गायत्री, ४ पथ्यापंक्ति।

२६. शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये। शं योरभि स्रवन्तु नः॥१॥

दैवीगुणों से युक्त आप:(जल) हमारे लिए हर प्रकार से कल्याणकारी एवं प्रसन्नतादायक हो। वह आकांक्षाओं की पूर्ति करके आरोग्य प्रदान करे ॥१॥

२७. अप्सु मे सोमो अब्रवीदन्तर्विश्वानि भेषजा। अग्निं च विश्वशम्भुवम्॥२॥

सोम का हमारे लिए उपदेश है कि दिव्य आप: हर प्रकार से ओषधीय गुणों से युक्त है। उसमें कल्याणकारी अग्नि भी विद्यमान है ॥२॥

२८. आपः पृणीत भेषजं वरूथं तन्वे३ मम। ज्योक् च सूर्य दृशे॥३॥

दीर्घकाल तक मैं सूर्य को देखू अर्थात् दीर्घ जीवन प्राप्त करूँ। हे आप: ! शरीर को आरोग्यवर्द्धक दिव्य ओषधियाँ प्रदान करो॥३॥

२९. शं न आपो धन्वन्या३: शमु सन्त्वनूप्याः।
शं नः खनित्रिमा आपः शमु याः कुम्भ आभृता: शिवा नः सन्तु वार्षिकीः॥४॥

सूखे प्रान्त (रेगिस्तान) का जल हमारे लिए कल्याणकारी हो। जलमय देश का जल हमें सुख प्रदान करे। भूमि से खोदकर निकाला गया कुएँ आदि का जल हमारे लिए सुखप्रद हो । पात्र में स्थित जल हमें शान्ति देने वाला हो। वर्षा से प्राप्त जल हमारे जीवन में सुख-शान्ति की वृष्टि करने वाला सिद्ध हो ॥४॥

भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

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