अथर्ववेद – Atharvaveda – 3:19 – अजरक्षत्र सूक्त

अथर्ववेद संहिता
अथ तृतीय काण्डम्
[१९- अजरक्षत्र सूक्त]

[ ऋषि – वसिष्ठ। देवता – विश्वेदेवा, चन्द्रमा अथवा इन्द्र। छन्द – अनुष्टप, १ पथ्याबृहती, ३ भुरिक् बृहती,५ त्रिष्टुप, ६ त्र्यवसाना षट्पदा त्रिष्टुप् ककुम्मतीगर्भातिजगती,७ विराट् आस्तार पंक्ति,८ पथ्यापंक्ति।]

४९४. संशितं म इदं ब्रह्म संशितं वीर्यं१ बलम्।
संशितं क्षत्रमजरमस्तु जिष्णुर्येषामस्मि पुरोहितः॥१॥

(पुरोहित की कामना है) हमारा ब्राह्मणत्व तीक्ष्ण हो और तब (उच्चारित) यह मंत्र तेजस्वी हो। (मंत्र के प्रभाव से) हमारे बल एवं वीर्य में तेजस्विता आएँ। जिनके हम विजयी पुरोहित हैं, उनका क्षात्रत्व अजर बने॥१॥

४९५. समहमेषां राष्ट्रं स्यामि समोजो वीर्यं१ बलम्।
वृश्चामि शत्रूणां बाहूननेन हविषाहम्॥२॥

हम आहुतियों द्वारा इस राष्ट्र को तेजस्वी तथा समृद्ध बनाते हैं। हम उनके बल, वीर्य तथा सैन्य शक्ति को भी तेजस्वी बनाते हैं; उसके रिपुओं की भुजाओं (सामर्थ्य) का उच्छेदन करते हैं॥२॥

४९६. नीचैः पद्यन्तामधरे भवन्तु ये नः सूरिं मघवानं पृतन्यान्।
क्षिणामि ब्रह्मणामित्रानुन्नयामि स्वानहम्॥३॥

जो हमारे धन-सम्पन्नों तथा विद्वानों पर सैन्य सहित आक्रमण करें, वे रिपु पतित हो जाएँ- अधोगति पाएँ। हम (मंत्र शक्ति के प्रभाव से) रिपुओं की सेना को क्षीण करके अपने लोगों को उन्नत बनाते हैं॥३॥

४९७. तीक्ष्णीयांसः परशोरग्नेस्तीक्ष्णतरा उत।
इन्द्रस्य वज्रात् तीक्ष्णीयांसो येषामस्मि पुरोहितः॥४॥

हम जिनके पुरोहित हैं, वे फरसे से भी अधिक तीक्ष्ण हो जाएँ, अग्नि से भी अधिक तेजस्वी हों। उनके हथियार इन्द्रदेव के वज्र से भी अधिक तीक्ष्ण हों॥४॥

४९८. एषामहमायुधा सं स्याम्येषां राष्ट्र सुवीरं वर्धयामि।
एषां क्षत्रमजरमस्तु जिष्णवे३षां चित्तं विश्वेऽवन्तु देवाः॥५॥

हम अपने राष्ट्र को श्रेष्ठ वीरों से सम्पन्न करके समृद्ध करते हैं। इनके शस्त्रों को तेजस्वी बनाते हैं। इनका क्षात्र तेज क्षयरहित तथा विजयशील हो। समस्त देवता इनके चित्त को उत्साहित करें॥५॥

४९९. उद्धर्षन्तां मघवन् वाजिनान्युद् वीराणां जयतामेतु घोषः।
पृथग् घोषा उलुलयः घोषा केतुमन्त उदीरताम्।
देवा इन्द्रज्येष्ठा मरुतो यन्तु सेनया॥६॥

हे ऐश्वर्यवान् इन्द्र !हमारे बलशाली दल का उत्साह बढ़े व विजयी वीरों का सिंहनाद हो। झंडा लेकर आक्रमण करने वाले वीरों का जयघोष चारों ओर फैले। इन्द्रदेव की प्रमुखता में मरुद्गण हमारी सेना के साथ चलें॥६॥

५००. प्रेता जयता नर उग्रा वः सन्तु बाहवः।
तीक्ष्णेषवोऽबलधन्वनो हतोग्रायुधा अबलानुग्रबाहवः॥७॥

हे वीरो! युद्ध भूमि की ओर बढ़ो। तुम्हारी बलिष्ठ भुजाएँ तीक्ष्ण आयुधों से शत्रु सेना पर प्रहार करें। शक्तिशाली आयुधों को धारण करने से बलशाली भुजाओं के द्वारा आप बलहीन आयुधों वाले कमजोर शत्रुओं को नष्ट करें। युद्ध में मरुद्गण आपकी सहायता के लिए साथ रहें। देवों की कृपा से आप युद्ध में विजयी बनें॥७॥

५०१. अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसंशिते।
जयामित्रान् प्र पद्यस्व जह्वेषां वरंवरं मामीषां मोचि कश्चन॥८॥

हे बाण ! मंत्रों के प्रयोग से तीक्ष्ण किये हुए आप हमारे धनुष से छोड़े जाने पर शत्रु सेना का विनाश करें। शत्रु सेना में प्रवेश कर उनमें जो श्रेष्ठतम वीर, हाथी, घोड़े आदि हों, उन्हें नष्ट करें। दूर होते हुए भी शत्रुओं का कोई भी वीर शेष न बचे ॥८॥

– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

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