अथर्ववेद-संहिता – 1:10 – पाशविमोचन सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥

[१०- पाशविमोचन सूक्त]

[ऋषि – अथर्वा । देवता – १ असुर , २-४ वरुण। छन्द – त्रिष्टुप्, ३ ककुम्मती अनुष्टुप् , ४ अनुष्टुप्।]

४५. अयं देवानामसुरो वि राजति वशा हि सत्या वरुणस्य राज्ञः।
ततस्परि ब्रह्मणा शाशदान उग्रस्य मन्योरुदिमं नयामि॥१॥

देवताओं में बली राजा वरुणदेव प्रकाशित हैं। उनकी इच्छा ही सत्य है; तथापि हम दैवी ज्ञान के बल पर स्तुतियों द्वारा पीड़ित व्यक्तियों को उनके प्रकोप से बचाते हैं ॥१॥

४६. नमस्ते राजन् वरुणास्तु मन्यवे विश्वं ह्युग्र निचिकेषि द्रुग्धम्।
सहस्रमन्यान् प्र सुवामि साकं शतं जीवाति शरदस्तवायम्॥२॥

हे सर्वज्ञ वरुणदेव ! आपके कोप से पीड़ित हम सब शरणागत होकर नमन करते हैं, आप हमारे सभी दोषों को भली-भाँति जानते हैं। जन-मानस को बोध हो रहा है कि देवत्व की शरण में पहुँच कर (सद्गुणों को अपना कर) ही सुखी और दीर्घ जीवन प्राप्त हो सकता है॥२॥

४७. यदवक्थानतं जिह्वया वजिनं बहु। राज्ञस्त्वा सत्यधर्मणो मुञ्चामि वरुणादहम्॥३॥

हे पीड़ित मानव ! तुमने अपनी वाणी का दुरुपयोग करते हुए असत्य और पाप वचन बोलकर अपनी गरिमा का हनन किया है। सर्व समर्थ वरुणदेव के अनुग्रह से इस दुःखद स्थिति से मैं तुम्हें मुक्त करता हूँ॥३॥

४८. मुञ्चामि त्वा वैश्वानरादर्णवान् महतस्परि।
सजातानुग्रेहा वद ब्रह्म चाप चिकीहि नः॥४॥

हे पतित मानव ! हम तुम्हें नियन्ता वरुणदेव के प्रचण्ड कोप से बचाते हैं। हे उग्रदेव ! आप अपने सजातीय दूतों से कह दें (वे इसे मुक्त करे) और हमारे ज्ञान (स्तोत्रों ) पर ध्यान दें ॥४॥

भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

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