अथर्ववेद-संहिता – 1:12 – यक्ष्मनाशन सूक्त

अथर्ववेद-संहिता
॥अथ प्रथमं काण्डम्॥

१२- यक्ष्मनाशन सूक्त

[ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता – यक्ष्मनाशन। छन्द- जगती, २-३ त्रिष्टुप् , ४ अनुष्टुप्।]

५५. जरायुजः प्रथम उस्त्रियो वृषा वातभ्रजा स्तनयन्नेति वृष्ट्या।
स नो मृडाति तन्व ऋजुगो रुजन् य एकमोजस्त्रेधा विचक्रमे॥१॥

जराय से उत्पन्न शिशु की भाँति बलशाली सूर्यदेव वायु के प्रभाव से मेघों के बीच से प्रकट होकर हमारे शरीरों को हर्षित करते हैं। वे सीधे मार्ग से बढ़ते हुए अपने एक ही ओज को तीन प्रकार से प्रसारित करते हैं ॥१॥

[सूर्य का ओज-प्रकाश ताप तथा चेष्टा के रूप में या शरीर में विधातुओं को पुष्ट करने वाले के रूप में सक्रिय होता है।]

५६. अङ्गे अङ्गे शोचिषा शिश्रियाणं नमस्यन्तस्त्वा हविषा विधेम।
अङ्कान्त्समङ्कान् हविषा विधेम यो अग्रभीत् पर्वास्या ग्रभीता॥२॥

अपनी ऊर्जा से अंग-प्रत्यंग में संव्याप्त हे सूर्यदेव! स्तुतियों एवं हवि द्वारा हम आपको और आपके समीपवर्ती देवों का अर्चन करते हैं। जिसके शरीरस्थ जोड़ों को रोगों ने ग्रसित कर रखा है, उसके निमित्त भी हम आपको पूजते हैं ॥२॥

५७. मुञ्च शीर्षक्त्या उत कास एनं परुष्परुराविवेशा यो अस्य।
यो अभ्रजा वातजा यश्च शुष्मो वनस्पतीन्सचतां पर्वतांश्च॥३॥

हे आरोग्यदाता सूर्यदेव! आप हमें सिरदर्द एवं कास (खाँसी) की पीड़ा से मुक्त करें। सन्धियों में घुसे रोगाणुओं को नष्ट करें। वर्षा, शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं के प्रभाव से उत्पन्न होने वाले वात, पित्त, कफ जनित रोगों को दूर करें। इसके लिए हम अनुकूल वातावरण के रूप में पर्वतों एवं वनौषधियों का सहारा लेते हैं ॥३॥

५८. शं मे परस्मै गात्राय शमस्त्ववराय मे।
शं मे चतुर्भ्यो अङ्गेभ्यः शमस्तु तन्वे३ मम॥४॥

हमारे सिर आदि श्रेष्ठ अंगों का कल्याण हो। हमारे उदर आदि साधारण अंगों का कल्याण हो। हमारे चारों अंगों (दो हाथों एवं दो पैरों) का कल्याण हो। हमारे समस्त शरीर को आरोग्य – लाभ प्राप्त हो ॥४॥

भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य

You may like to explore..!

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *