अथर्ववेद संहिता
।।अथ तृतीय काण्डम्।।
[७- यक्ष्मनाशन सूक्त]
[ ऋषि – भृग्वङ्गिरा। देवता – यक्ष्मनाशन (१-३ हरिण, ४ तारागण, ५ आपः,६-७ यक्ष्मनाशन)। छन्द – अनुष्टुप् , १ भुरिक अनुष्टुप्।]
इस सूक्त में क्षेत्रिय रोगों के उपचार का वर्णन है । क्षेत्रिय रोगों का अर्थ सामान्य रूप से आनुवंशिक रोग लिया जाता है। गीता में ‘क्षेत्र’ शरीर को कहा गया है। शरीर में बाहरी विषाणुओं से कुछ रोग पनपते हैं। कुछ रोगों की उत्पत्ति (आनुवंशिक अथवा अन्य कारणों से) शरीर के अन्दर से ही होती है, इसलिए क्षेत्र (शरीर) से उत्पन्न होने के कारण उन्हें क्षेत्रिय रोग कहा गया है। इन रोगों की ओषधि ‘हरिणस्य शीर्ष’ आदि में कही गयी है, जिसका अर्थ हिरण के सिर के अतिरिक्त हरणशील किरणों का सर्वोच्च भाग ‘सूर्य’ भी होता है । विषाण का अर्थ सींग तो होता ही है- हिरण के सींग (मृगश्रृंग) का उपयोग वैद्यक में होता है। विषाण का अर्थ कोषों में कुष्ठादि की ओषधि तथा ‘विशेष मदकारी’ भी है। सूर्य के सन्दर्भ में ये अर्थ लिए जा सकते हैं। उपचारों (मंत्र ४ से७) में आकाशीय नक्षत्रों तथा जल-रस आदि का भी उल्लेख है। इन सबके समुचित संयोग से उत्पन्न प्रभावों पर शोध अपेक्षित है-
४०२. हरिणस्य रघुष्यदोऽधि शीर्षणि भेषजम्।
स क्षेत्रियं विषाणया विषूचीनमनीनशत्॥१॥
द्रुतगति से दौड़ने वाले हरिण (हिरण या सूर्य) के शीर्ष (सर्वोच्च भाग) में रोगों को नष्ट करने वाली ओषधि है। वह अपने विषाण (सींग अथवा विशेष प्रभाव) से क्षेत्रिय रोगों को विनष्ट कर देता है॥१॥
४०३. अनु त्वा हरिणो वृषा पद्भिश्चतुर्भिरक्रमीत्।
विषाणे वि ष्य गुष्पितं यदस्य क्षेत्रियं हृदि॥२॥
यह बलशाली हरिण (हिरण या सूर्य) अपने चारों पदों (चरणों) से तुम्हारे अनुकूल होकर आक्रमण करता है। विषाण ! आप इसके (पीड़ित व्यक्ति के) हृदय में स्थित गुप्त क्षेत्रिय रोगों को विनष्ट करें॥२॥
४०४. अदो यदवरोचते चतुष्पक्षमिवच्छदिः।
तेना ते सर्वं क्षेत्रियमङ्गेभ्यो नाशयामसि॥३॥
यह जो चार पक्ष (कोनों या विशेषताओ) से युक्त छत की भाँति (हिरण का चर्म अथवा आकाश) सुशोभित हो रहा है, उसके द्वारा हम आपके अंगों से समस्त क्षेत्रिय रोगों को विनष्ट करते हैं॥३॥
४०५. अमू ये दिवि सुभगे विचूतौ नाम तारके।
वि क्षेत्रियस्य मुञ्चतामधमं पाशमुत्तमम्॥४॥
अन्तरिक्ष में स्थित विचृत (‘मूल’ नक्षत्र या प्रकाशित) नामक जो सौभाग्यशाली तारे हैं, वे समस्त क्षेत्रिय रोगों को शरीर के ऊपर तथा नीचे के अंगों से पृथक् करें॥४॥
४०६. आप इद् वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः।
आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुञ्चन्तु क्षेत्रियात्॥५॥
जल समस्त रोगों की ओषधि है। स्नान-पान आदि के द्वारा यह जल ही ओषधि रूप में सभी रोगों को दूर करता है। जो अन्य ओषधियों की भाँति किसी एक रोग की नहीं, वरन् समस्त रोगों की ओषधि है, हे रोगिन् ! ऐसे जल से तुम्हारे सभी रोग दूर हों॥५॥
[ओषधि अथवा मंत्र युक्त जल के प्रयोग का संकेत प्रतीत होता है।]
४०७. यदासुतेः क्रियमाणायाः क्षेत्रियं त्वा व्यानशे।
वेदाहं तस्य भेषजं क्षेत्रियं नाशयामि त्वत्॥६॥
हे रोगिन् ! बिगड़े हुए स्रवित रस से आपके अन्दर जो क्षेत्रिय रोग संव्याप्त हो गया है, उसकी ओषधि को हम जानते हैं। उसके द्वारा हम आपके क्षेत्रिय रोग को विनष्ट करते हैं॥६॥
[शरीर में विविध प्रकार के रस स्त्रवित होते हैं। जब वे रस कायिक तंत्र बिगड़ जाने से दोषपूर्ण हो जाते हैं, तो क्षेत्रिय रोग उत्पन्न होते हैं। रोगों के मूल कारण के निवारण का संकल्प इस मंत्र में व्यक्त हुआ है।]
४०८. अपवासे नक्षत्राणामपवास उषसामुत।
अपास्मत् सर्वं दुर्भूतमप क्षेत्रियमुच्छतु॥७॥
नक्षत्रों के दूर होने पर उषाकाल में तथा उषा के चले जाने पर दिन में समस्त अनिष्ट हमसे दूर हो। क्षेत्रिय रोगादि भी इसी क्रम में दूर हो जाएँ ॥७॥
– भाष्यकार वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पं० श्रीराम शर्मा आचार्य जी
